बिगड़ता पर्यावरणः जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी असर ने दे दी भारत की दहलीज पर दस्तक


पर्यावरणः


जलवायु आधारभूत ढांचे की पटना में आई भीषण बाढ़ ने जहां शहरी आधारभूत ढांचे की पोल खोल दी वहीं यह भी साफ कर दिया कि तेजी से बिगड़ता पर्यावरण गंभीर समस्याएं पैदा कर रहा है। जब बारिश और बाढ़ से पटना के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में जलप्रलय की स्थिति है तब देश के कुछ हिस्सों में सूखे जैसे हालात हैं। पिछले एक दशक में देश-दुनिया में तमाम स्थानों पर जरूरत से जरूरत से ज्यादा बारिश के कारण जानमाल की व्यापक क्षति हुई है। इसी दौरान यूरोपीय देशों में गर्मी के रिकॉर्ड भी टूटे हैं। पिछले वर्ष केरल में बारिश से हुई तबाही को हम भूल नहीं सकते। वहां अगस्त के शुरुआती 19 दिनों में ही 758.6 मिलीमीटर बारिश हुई जो सामान्य से 164 फीसद अधिक थी। इसके चलते जो बाढ़ आई उसमें तीन सौ से अधिक लोगों की जान गई। जलवायु पारवतन क कारण वायुमडल लगातार गम हा रहा है आर इसक चलत अटाकाटका के साथ ग्रीनलैंड में मौजूद बफ की चादर तेजी से पिघल रही है। अनुमान है कि 2050 तक आधिकाश वापर चा हा जाएगा निम हिमालया ग्लाशयर भा शामल ह। यह भारत कालए एक बड़ा विपदा का सकत है। हम इस लेकर चेतना ही होगा कि जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी असर ने भारत की दहलीज पर दस्तक दे दी है। दुखद यह है कि अब भी हमारे कार्य व्यवहार पर यथास्थितिवाद हावी दिख रहा है। जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारक प्रदूषण के मुद्दे पर नीति माता मारता ता दिखाइ, पर अमा उसके अपेक्षित नतीजे नहीं दिखे हैं। इसका कारण समाज में जागरूकता की कमी है। संपादकीय - व्यंग्यः यदि प्राकृतिक संपदा और पर्यावरण संरक्षण के प्रति हमारी उदासीनता दर नहीं हई तो भविष्य भयावह हो सकता है। चूंकि आजकल जोर लोकलुभावन नीतियों पर है इसलिए पर्यावरण की दशा सुधारने के लिए सख्त फैसले नहीं लिए जा रहे हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसलीय अवशेष यानी पराली जलाए जाने से सर्दियों के मौसम में वायुमंडल बुरी तरह प्रदूषित हो जाता है। सब इससे परिचित हैं कि पराली जलने से बड़ी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड के साथ अन्य विषैले गैसों का उत्सर्जन होता है, लेकिन उस पर रोक नहीं लग पा रही है। पराली जलाने की समस्या आज की नहीं, दशकों परानी है। राजनीतिक कारणों से न तो हरियाणा सरकार ने किसानों को पराली परिचित हैं कि पराली जलाने व्यंग्यः ऑफिस में जलाने से रोकने के लिए जरूरी कदम उठाना जरूरी समझा और न ही पंजाब सरकार ने। वे शुतुरमुर्गी रवैया अपनाए रहींजब इसके खिलाफ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लोग सक्रिय हए और मामला सप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सरकारों की कळंभकर्णी नींद टूटी। यदि समय रहते किसानों को पराली जलने से होने वाले खतरों से अवगत कराया जाता और आम जनता को उन सभी कारणों से परिचित कराया जाता जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं तो बेहतर होता। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि जलवायु परिवर्तन के कारण आदिकाल से जीवनदायिनी रहीं हमारी नदियां आज दम तोड़ने की कगार पर हैं। तमाम नदियां अब नरप्राय हैं। हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की वजह से गंगा उन सभी कारणों से परिचित जनता को काम न करने का और यमना की सहायक जलधाराएं तेजी से सूख रही हैं। इसके लिए आम लोग भी दोषी हैं। हम जहां नदियों की पूजा करते हैं वहीं उन्हें प्रदषित करने से भी बाज नहीं आते। आखिर प्रतिमाओं के विसर्जन के समय यह ख्याल क्यों नहीं आता कि उनमें इस्तेमाल होने वाले रसायन और अन्य हानिकारक पदार्थ नदियों को जहरीला बनाते हैं? मश्किल यह है कि शासन-प्रशासन धार्मिक आस्था के चलते प्रतिमाओं के विसर्जन के खिलाफ कोई कदम उठाने का साहस नहीं करता। यह अच्छा हआ कि एनजीटी ने गंगा और उसकी सहायक नदियों में प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगा दी, लेकिन देखना है कि प्रशासन उस पर अमल करा पाता है या नहीं? पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच मुश्किल यह है कि शाम का कारगर नुस्खा भारत की दहलीज पर केंद्र सरकार ने एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को ही लाल किले की प्राचीर से इसके खिलाफ मुहिम चलाने की घोषणा की थी। संयुक्त राष्ट्र के मंच से भी उन्होंने दुनिया को इस अभियान के बारे में बताते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन रोकने के मामले में बातें करने का समय निकल चुका है, अब काम करके दिखाने का समय प्लास्टिक से होने वाले नुकसान को देखते हुए देर से सही, एक दुरुस्त फैसला लिया गया। केंद्र सरकार ने आम आदमी के रोजगार को ध्यान में रखते हुए प्लास्टिक पर प्रतिबंध जैसा कदम नहीं उठाया है। चूंकि प्लास्टिक की वस्तुओं का निर्माण छोटे- छोटे उद्योग करते हैं इसलिए उनके निर्माण पर यकायक पाबंदी लगती तो लाखों लोगों का बराजगारा का सामना करना पड़ताराज्य सरकारों को यह समझना चाहिए कि सिंगल यूज प्लास्टिक के चलन को रोकने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी। क्षरणशील न होने के कारण प्लास्टिक सैकड़ों साल ज्यों का त्यों बना रहता है। इसस पाना भा दूषित हाता ह आरमिट्टा भाप्लास्टिक अवशेष नदियों के जरिये समुद्र तक पहुंचते हैं और उनमें मौजूद जैव विविधता को बर्बाद करते हैं। जिस माइक्रो प्लास्टिक में पेय पदार्थों या खाद्य सामग्री की पैकिंग होती है वह भी सेहत के लिए हानिकारक है। यदि हम जागरूक होकर सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद कर सकें तो हर साल नदियों, नालों और जमीन में जमा होने वाले लाखों टन प्लास्टिक नुस्खा है कश्मीर में फिर सिर कचरे से निजात मिल सकती है। स्पष्ट है कि इससे पर्यावरण सुधारने में मदद मिलेगी। भारत पेरिस जलवायु समझौते में शामिल है। यह जलवायु परिवर्तन रोकने की वैश्विक पहल है। यह तभी प्रभावी होगी जब सभी देश मिलकर काम करेंगे। चिंताजनक यह है कि कई ऐसे विकसित देश अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं जो कहीं अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं। जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए 2015 में हुए पेरिस समझौते को अपने लिए अनुचित बताते हुए अमेरिका इससे बाहर हो गया। इसके तहत विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के साथ विकासशील देशों को तकनीकी एवं आर्थिक सहायता उपलब्ध करानी थी ताकि वे अपना विकास रोके बगैर जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने में सहायक बन सकें। अमारका क इस समझात स बाहर के कारण पेरिस में जो लक्ष्य तय किए गए थे उन्हें हासिल करना मुश्किल हो रहा है। चूंकि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पेरिस समझौते पर अमल के लिए प्रतिबद्ध हैं इसलिए दुनिया भर में उनकी सराहना हो रहा हा उन्हान ।सगल यूज प्लास्टिक क खिलाफ जिस जन आंदोलन छेड़ने की बात कही उसमें समाज के हर तबके को शामिल होने की जरूरत है। वास्तव में यह बुनियादी बात सभी को समझनी ही होगी कि पर्यावरण संरक्षण केवल शासन-प्रशासन का काम नहीं, इसमें तो हर व्यक्ति का योगदान चाहिए। बेहतर होगा कि इस मामले में आम आदमी से लेकर उद्योगपति तक अपने महती दायित्व को समझें।