पुराने प्रसंग नई बातें

बरसों बाद हजारों घरों में सारा परिवार किसी धारावाहिक के लिए टीवी के सामने एक साथ बैठ रहा है। बरसों बाद बड़े खुद बच्चों के लिए टीवी चला रहे हैं। उन्हें साथ बिठा कर टीवी दिखा रहे हैं। बरसों बाद कोई बच्चा रिमोट छीनने की जिद नहीं कर रहा है। बरसों बाद बच्चों में वही पुराना- सा उत्साह है। बरसों बाद लोग काम-धंधे से निवृत्त होकर रामायण-महाभारत बैठने देख रहे हैं। बरसों बाद फिर रामायण देख रहे लोगों की आंखें नम हैं। पूरे धारावाहिक के दौरान खद मेरी आंखों से न जाने कितनी बार आंसू ढुलकते रहे। भावनाएं आलोड़ित होती रहीं। बगल में बैठे बड़े भाई पर नजर गई, तो उनकी भी आंखें नम थीं। बड़े ने बस इतना ही कहा, 'पागल हो गया।' और फिर मुस्कुराते हुए वापस टीवी देखने लगे। मुंबई में बैठे एक मित्र से बात हुई, तो पता चला कि वह भी रोता रहा और देखता रहा। बरसों बाद टीवी धारावाहिक पूरे देश को इस तरह जोड़ रहे हैं। ट्विटर पर 'प्तरामायण' और 'प्तसंस्कृति की ओर बढ़ते कदम' 'ट्रेंड' करने लगे हैं। रामानंद सागर कृत रामायण भय के इस माहौल से मन को विलग करती है। मनभावन है। इसलिए सुकून देती है। संस्कारों की घुट्टी हमें इन धारावाहिकों से भी तो मिली है। याद है वह दृश्य, जब राजा दशरथ भोजन के समय बालकों को सीख देते हैं कि गुरुकुल में बच्चों का सगे-संबंधियों के पास भिक्षा के लिए जाना क्यों वर्जित है। उसी दृश्य के साथ, उसके साक्षी बन रहे लाखों बच्चों में समानता का संस्कार घुल जाता है। याद है वह दृश्य भी, जब दशरथ बताते हैं कि वहां गुरुकुल में धूप हो या वर्षा, छाता नहीं मिलेगा। उसी के साथ बच्चों में यह संस्कार घुल जाता है कि हमें हर परिस्थिति, हर मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। एक और दृश्य, जब दशरथ पुत्रों के गुरुकुल जाने से ठीक पहले महर्षि वशिष्ठ समझा रहे हैं कि सेवा क्या होती है? पहला ही वाक्य आता है- 'सत्यम् वद, धर्मम् चर।' तुरंत ही मुझसे एक हाथ की दूरी पर बैठा बच्चा पूछता है, 'धर्म क्या होता है?' मैं कहता हूं, 'देखो, आगे खुद पता चल जाएगा।' तभी बालक राम पूछते हैं, 'सेवा कैसे करेंगे।' महर्षि वशिष्ठ बताते हैं, 'गुरु के सोने के बाद सोना और उनके उठने से पहले उठना। आश्रम की साफ-सफाई का ध्यान रखना। अपने गुरु की बात मनोयोग से सुनना। एक-दूसरे से लड़ना-झगड़ना नहीं।' बच्चा समझ जाता है कि धर्म क्या है। मैं खुद नहीं समझ पाता था पहले कि सामान्य दिनचर्या में घर में बड़ों के उठ जाने के बाद सोते रहना मुझे क्यों पसंद नहीं है। आज दुबारा रामायण देख कर समझ आया कि ये संस्कार होते हैं, जो हमारे भीतर कहीं घुल गए होते हैं। उनके बनने की एक लंबी प्रक्रिया होती है। समय के साथ वह प्रक्रिया हम भूल जाते हैं, लेकिन संस्कार हमारे व्यक्तित्व का निर्माण कर चुके होते हैं। दुबारा रामायण देखने वाले हर व्यक्ति ने अशोक कुमार की आवाज में उसका परिचय फिर सुना होगा। जब पहली बार सुना होगा, तब हमारा बचपन था। आज समझदारी है। इसे दुबारा सुनते हुए मन में खयाल आया, आज भी हालात एकदम वैसे ही हैं। 1987 में जब दूरदर्शन पर यह धारावाहिक शुरू हुआ, तब मैं एक साल का था। धारावाहिक सालों-साल चला। मैं तब गांव में रहता था। तब बहुत कम घरों में टीवी होते थे। इसलिए आसपास के जिस घर में टीवी होता था, वहां पूरा मुहल्ला चौक में जमा होकर रामायण और महाभारत देखता था। सोशल मीडिया (सामाजिक मंचों) पर इन दिनों याद दिलाया जा रहा है कि पहले 'जब रामायण-महाभारत आते थे, तो कयूं जैसी स्थिति हो जाती थी। और आज जब आ रहे हैं, तो शहरों में कप! पहले से लगा हुआ है।' विकीपीडिया कहता है कि उस समय में रामायण की हर कड़ी ने दूरदर्शन को चालीस लाख रुपए कमा कर सरकार को दिए थे। शायद इसीलिए सोशल मीडिया पर यह भी खूब चल रहा है कि आज दूरदर्शन टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे हो सकता था। वैसे आज के हालात में रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक दुबारा शुरू करने की निश्चित रूप से सराहना की जानी चाहिए। ये धारावाहिक घरों में कैद लोगों को स्वस्थ रखने में मदद कर रहे हैं। ये धारावाहिक एक ही समय में घरों से निकलने वाले लोगों की संख्या में कमी कर सकते हैं, जो आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। ऐसा हो पाया तो इसे सरकारी संचार माध्यमों की बड़ी सफलता समझी जा सकती है। हालांकि चंद लोग ऐसे भी हैं जो रामायण, महाभारत आदि को पुरानी सामग्री बता रहे हैं। वे नई प्रसारण सामग्री के लिए इंटरनेट का रुख कर रहे हैं। पर इन लोगों को समझना चाहिए कि रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिक भले प्रसारण की पुरानी सामग्री हों, पर ये नित-नूतन हैं। इन्हें जितनी बार देखें, कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।