प्रकृति को चुनौती के नतीजे


 


 


इतिहास बताता है कि मनुष्य प्रारंभ में अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए प्रकृति पर निर्भर था। खाना-पीना, पहनना, रहना सब कुछ उसे प्रकृति से ही मिलता था। जब तक मनुष्य ने प्रकृति के साथ संतुलन का रिश्ता बनाए रखा, प्रकृति ने उसका पोषण किया। लेकिन जैसे ही वह प्रकृति का आवश्यकता से अधिक दोहन करने लगा तो प्रकृति ने मनुष्य अस्तिव को चुनौती देना शुरू कर दिया। प्रकृति और मनुष्य का रिश्ता उस दिन से ही बिगड़ना शुरू हो गया, जबसे मनुष्य में लालच की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई। भारत को शुरू से ही आध्यात्मिक परिवेश वाला देश माना जाता है, जहां प्रकृति यानी पेड़-पौधे, आकाश, धरती, जल, वायु, पशु-पक्षी सभी को पूजा जाता रहा है। ये सभी मनुष्य अस्तित्व को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि पृथ्वी हमें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए पूरे संसाधन प्रदान करती है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं। धीरे-धीरे सभ्यता और आधुनिक विकास के बाद मनुष्य ने प्रकृति पर नियंत्रण करना और उस पर अपनी निर्भरता को कम करना सीख लिया। जैसे वर्षा न होने पर कृत्रिम वर्षा करना, क्लोनिंग के माध्यम से नए जीव की उत्पत्ति, कृत्रिम तरीके से मनुष्य शिशु का जन्म, कृत्रिम मनुष्य अंगों का निर्माण, कृत्रिम ऊर्जा बनाना इत्यादि। उसे लगने लगा कि अब वह प्रकृति से अधिक शक्तिशाली हो गया है। उसने आकाश को फतह कर लिया, ब्रह्मांड के कोनों तक पहुंच चुका है। इसलिए अब उसे प्रकृति से डरने की आवश्यकता नहीं। इसलिए हमने प्रकृति का आवश्यकता से अधिक दोहन करना शुरू कर दिया। जंगल के जंगल काट डाले, पहाड़ों को नष्ट कर दिया, नदियों और हवा को दूषित कर दिया, जीव-जंतुओं की कई प्रजातियों को विलुप्तप्राय बना दिया। या कहें कि जीवन चक्र को ही बाधित कर दिया। परिणामस्वरूप प्रकति ने समय-समय पर प्लेग, मलेरिया, चेचक, हैजा, खसरा, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और अब कोरोना के रूप में न केवल मनुष्य अस्तिव को, बल्कि प्रत्येक जीव के अस्तिव को चुनौती दे डाली है। इतिहास साक्षी है कि इन महामारियों की वजह से हर बार अनगिनत मौतें हुईं, फसलें नष्ट हो गईं, कई सभ्यताएं समूल नष्ट हो गईं। आखिर क्यों? आज हर राष्ट्र महाशक्ति बनने की होड़ में लगा है। आधुनिक तकनीक का विकास करके वह अन्य राष्ट्रों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है। लेकिन ऐसा करते समय मनुष्य यह भूल गया है कि आज भी प्रकृति के अनेक पक्ष ऐसे हैं जिन पर से वह परदा नहीं उठा पाया है। सवाल है कि जो पक्ष अज्ञात है, जिसका हमें ज्ञान ही नहीं है, उस पर नियंत्रण स्थापित करने की भूल कैसे की जा सकती है? ऐसा नहीं है कि यह सब अचानक हुआ है, अपितु समय-समय पर प्रकृति ने संकेत दिए। कभी जलवायु परिवर्तन के रूप में, कभी बाढ़, सूखा, भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में तो तो कभी महामारी के रूप में। लेकिन स्वयं को सर्व शक्तिशाली मानने के अहम में मनुष्य ने प्रकृति के इन संकेतों की हमेशा उपेक्षा की और परिणाम हमारे सामने हैं। आज हर चीज दूषित है। जल, वायु, फल, सब्जी, मसाले, अनाज और दवाएं कुछ भी तो शुद्ध नहीं मिल रहा है। हमें लगता है कि हमें सब पता है, हमने हर चीज पर जीत हासिल कर ली है और बाकी पर जल्द ही कर लेंगे। महाकवि कालिदास के बारे में कहा जाता है कि पेड़ की जिस डाल पर बैठे थे, उसे ही काट रहे थे। तो क्या हम भी वैसा ही नहीं कर रहे हैं? यह जानते हुए भी कि धरती पर जीवन के लिए प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बना रहना आवश्यक है फिर भी इसे नष्ट करने पर आमादा हैं। आखिर मनुष्य क्या हासिल करना चाहता है, वह भी स्वयं को विनाश के कगार पर लाकर? स्टीवर्ट उद्दाल का तर्क है कि हवा और पानी को बचाने या जंगल और जानवर को बचाने वाली योजनाएं असल में मनुष्य को बचाने की योजनाएं हैं। इस स्थिति को भांपते हुए ही गांधीजी ने कहा था कि आधुनिक शहरी औद्योगिक सभ्यता में ही उसके विनाश के बीज नीहित हैं। प्रकृति ने हमें सब कुछ मुफ्त में दिया और हमने उनकी कीमत निर्धारित कर दी। उन्होंने सन् 1931 में लिखा था कि भौतिक सुख और आराम के साधनों के निर्माण और उनकी निरंतर खोज में लगे रहना ही अपने आप में एक बुराई है। यदि भारत ने विकास के लिए पश्चिमी मॉडल को अपनाया तो उसे अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक अलग धरती की जरूरत होगी। आवश्यकता इस बात की है कि लालसा और आवश्यकता में अंतर स्थापित किया जाए। यह सच है कि जिंदगी के लिए सुविधाएं जुटाते-जुटाते हम भूल गए कि इसके कारण मनुष्य और प्रकृति के बीच असंतुलन बढ़ता जा रहा है। मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के कारण प्रकृति की ऐसी कोई वस्तु नहीं बची है, जिसे बाजार ने उपभोक्ता वस्तु या कहें कि क्रय-विक्रय की वस्तु में नहीं बदला। विकास की अंधी दौड़ ने मनुष्य जाति के एक हिस्से को, जो कि लाभ कमाने की अंधी दौड़ का हिस्सा है, समूचे पर्यावरण के प्रति असहिष्णु बना दिया है। बीसवीं और यहां तक कि इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने पूंजीवादी विकास का लगभग चरम स्तर प्राप्त कर लिया था। लेकिन अमीरी और शक्ति सम्पन्न होने की भूख इन देशों की नहीं मिटी, जिसका सर्वाधिक नुकसान समूचे विश्व के विकासशील और गरीब देशों को पर्यावरण असंतुलन के रूप में चुकाना पड़ रहा है। चीन और भारत जैसे देशों में पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ इतनी ज्यादा हो चुकी है कि 'पर्यावारणीय न्याय' का तर्क बेमानी नजर आने लगा है। दुनिया के सर्वाधिक बीस प्रदूषित शहरों में से तेरह शहर भारत के हैं। नदियां इतनी ज्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं उनका पानी किसी भी दृष्टि से पीने योग्य नहीं है। सवाल है कि इस पर्यावरण विनाश के लिए उत्तरदायी कौन है? यह एक तथ्य है कि भारत में संसाधनों के सत्तर फीसद हिस्से पर भारत की एख फीसद आबादी का स्वामित्व है। असल में यही आबादी पर्यावरण विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। यही वह सक्षम आबादी है जो दुनिया की सारी सुविधाओं से संपन्न है। किसानों और आदिवासियों से जमीन खरीद कर समूची ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चौपट करने वाली इस आबादी ने उन किसानों व आदिवासियों के सम्मुख जीने का संकट खड़ा कर डाला है। समूचे प्राकृतिक संसाधनों को 'उपभोग की वस्तु' में परिवर्तित कर इन पूंजीवादी वर्ग ने प्राकृतिक संसाधनों को आम जनता की पहुंच से बाहर कर दिया है। परिणामस्वरूप सामुदायिक वस्तु (जैसे मिट्टी, पानी, हवा) जो कि प्रकृति प्रदान किया करती है और पहले जिसकी कोई कीमत नहीं देनी पड़ती थी, अब कीमती वस्तु के रूप में वैश्विक बाजार में खरीदी और बेची जाती है। यह कैसा विकास है जहां हम तकनीकी ज्ञान के प्रभाव में आकर अपनी संस्कृति और मूल्यों को भूलते जा रहे हैं, जिसमें प्रकृति और मनुष्य दोनों के अस्तित्व के लिए दोनों का संरक्षण आवश्यक है। हमने दूसरे राष्ट्रों को मात देने के लिए बड़े-बड़े हथियार और बम बना लिए, दूसरे ग्रहों पर पहुंच गए, पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी हिस्से में पहुंचने या खरीदारी करने का इंतजाम कर लिया, लेकिन विरोधाभास देखिए कि एक अतिसूक्ष्म वायरस से मुकाबला करने में अक्षम साबित हो रहे हैं। किसी ने सही कहा है- 'शहरों का सन्नाटा बता रहा है, इंसान ने कुदरत को नाराज बहुत किया है'।